वर्ष 1916 में देश के तत्कालीन हैदराबाद राज्य के परभणी जिले के कडोली (वर्तमान में महाराष्ट्र के हिंगोली जिले का हिस्सा) में 11 अक्तूबर को बेहद सामान्य मराठी भाषी परिवार में चंडिकादास अमृतराव देशमुख (जो बाद में नानाजी देशमुख के नाम से जाने गये) का जन्म हुआ था। वे ऐसे विलक्षण राजनेता व समाजसेवी के रूप में याद किये जाते हैं, जिन्होंने क्षेत्रों, प्रांतों व भाषाओं की सीमाएं पार कर राष्ट्रव्यापी जनश्रद्धा पायी। उनका जन्म भले ही महाराष्ट्र में हुआ था, उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों के केंद्र में उत्तर प्रदेश (गोंडा व बलरामपुर), मध्य प्रदेश (चित्रकूट) और राजस्थान रहे। राजनीति की कोठरी में लंबा समय बिताने के बावजूद उन्होंने अपनी चादर पर उसके काजल की कोई हल्की सी भी लीक नहीं लगने दी। निजी उपलब्धियों को लेकर तो वे इतने निस्पृह थे कि 1977 में केंद्र में गठित जनता पार्टी सरकार में मंत्री पद का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। बावजूद इसके कि वे पार्टी के संस्थापकों में से एक थे और उसकी सरकार के गठन में उनकी बड़ी भूमिका थी। उनका मानना था कि नेताओं को साठ वर्ष की उम्र सीमा तक राजनीति और उसके बाद राजनीति से इतर सामाजिक कार्य करने चाहिए। अपनी इस मान्यता से उन्होंने स्वयं को भी कड़ाई से बांध रखा था. संयोगवश, वे अपनी जयंती लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ ही साझा करते हैं।
लोकनायक 1902 में 11 अक्तूबर को ही पैदा हुए थे। यह भी संयोग है कि नानाजी और चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि एक ही है। आजाद 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद हुए थे, तो नाना जी ने 27 फरवरी, 2010 को चित्रकूट में अंतिम सांस ली थी। छुटपन से ही वे बाल गंगाधर तिलक के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार व सरसंघचालक एमएस गोलवलकर के राष्ट्रवाद से प्रेरित थे। संघ के स्वयंसेवक बनने के बाद जनसंघ के दौर में उन्हें दीनदयाल उपाध्याय के बराबर का नेता माना जाता था। राजनीतिक जीवन में उन्होंने जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह व मोरारजी देसाई के साथ काम करके विविधता भरे अनुभव संचित किये। जबकि सामाजिक कार्यों की प्रेरणा आचार्य विनोबा भावे से ग्रहण की। उनकी बहुविध सेवाओं के लिए 1999 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया व पद्म विभूषण दिया गया, तो 2019 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया गया।
वर्ष 1977 में वे उत्तर प्रदेश की बलरामपुर लोकसभा सीट से जनता पार्टी के सांसद बने, तो एक दुर्लभ मिसाल कायम की। कांग्रेस की जिन तेजतर्रार महारानी लक्ष्मी कुंअरि को शिकस्त दी थी, चुनाव परिणाम घोषित होते ही उनसे मिलने उनके महल जा पहुंचे। जब दोनों की भेंट हुई तो महारानी हार की तल्खी छिपा नहीं पायीं। तैश में आकर बोलीं, ‘चुनाव तो आप हरा चुके मुझे। अब यहां और क्या लेने आये हैं? जीत की बधाई मैं पहले ही दे चुकी हूं। और क्या चाहते हैं मुझसे? नानाजी ने किंचित मुस्कुराकर कहा, ‘महारानी जी, मुझे खुशी हुई कि आपने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही प्रश्न किया। आपके इस प्रश्न ने कम से कम मेरी एक उलझन तो सुलझा दी। संकोच के मारे मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे जो मांगना है, आपसे कैसे मांगूं? अब मैं निश्चिंत होकर अपनी मांग आपके समक्ष रख सकूंगा।
हार के बाद रानी ने रद्द कर दिए थे सार्वजनिक कार्यक्रम
1977 में नाना जी देशमुख ने जनता पार्टी के टिकट पर बलरामपुर सीट पर महारानी लक्ष्मी कुंवर को शिकस्त दी थी। महारानी कांग्रेस प्रत्याशी थीं और उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। परिणाम की घोषणा के बाद महारानी ने ‘सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाने’ की पीड़ा से सार्वजनिक कार्यक्रम रद्द कर दिए और महल चली गईं। इसी बीच एक नौकर ने सूचना दी कि ‘महारानी! नानाजी नाम का एक आदमी आपसे मिलना चाहता है। वह मुलाकात का उद्देश्य भी बताने को तैयार नहीं है। उस दौर में विचारहीन राजनीति और व्यक्तिगत कटुता नहीं होती थी। महारानी ने नानाजी को बुलवाया। हार की तल्खी के तैश में वह बोलीं, ‘चुनाव तो आप हरा चुके हैं। अब क्या लेने आए हैं? जीत की बधाई मैं दे चुकी हूं। और क्या चाहते हैं? नानाजी ने कहा कि मुझे जो मांगना है, कैसे मांगूं?
नानाजी बोले, ‘आपकी प्रजा ने इस बार आपकी जगह मुझे अपना सांसद चुना है और अब मेरा फर्ज है कि मैं आपकी ही तरह उनके बीच रहकर उनके सुख-दुख में भागीदारी करूं पर आपके राज में न मेरे पास सिर छुपाने की कोई जगह है, न ही इतना धन कि जमीन खरीद कर उस पर चार दीवारें खड़ी कर छत डलवा सकूं। आप महारानी हैं, कृपा कर मुझे भी एक घर दे दीजिए।’ महारानी ने थोड़ी देर बाद एक गांव का नाम लिया और कहा कि उसकी सारी खाली जमीन आज से आपकी। जाइए, उस पर जितना बड़ा घर चाहें, बनवा लीजिए.’ नानाजी उस जगह अपना घर तो क्या बनाते, वहां एक नया गांव ही बसा डाला। नाम रखा जयप्रभा ग्राम। जय यानी लोकनायक जयप्रकाश नारायण और प्रभा यानी उनकी जीवनसंगिनी प्रभावती। जब तक नानाजी दुनिया में रहे, इस गांव को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने में लगे रहे। एक दिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी जयप्रभा ग्राम पधारे, तो कार्यकर्ताओं ने नानाजी से कहा कि राष्ट्रपति जी के भोजन की व्यवस्था सामान्य ग्रामवासियों से अलग कर देनी चाहिए पर नानाजी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। रेड्डी ने भी खुशी-खुशी आम लोगों के साथ बैठकर भोजन किया।